2010 का साल था। इंजीनियरिंग करने के बाद जॉब जॉइन किए हुए तीन साल हुए थे। एक रोज ऐसे ही इंटरनेट खंगाल रहा था, तो इंडियन फेलोशिप के बारे में पता चला। मैंने फॉर्म भर दिया। कुछ महीने बाद सिलेक्शन भी हो गया। अब तक मैंने अपनी लाइफ जी थी। फेलोशिप में दूसरों की लाइफ को देखने और जीने का मौका मिला।
इसी सिलसिले में मैं पुणे के एक गांव में था। घूमते वक्त एक बुजुर्ग ने आवाज दी, मैं उनके पास गया। जाते ही वो मुझे घर के अंदर ले गए। खाट पर उनका एक बेटा लेटा हुआ था। बुजुर्ग ने अपने बेटे की ओर इशारा किया और मुझसे बोले कि कल तक ये सब कुछ कर सकता था, आज ये कुछ नहीं कर सकता। मेरे बाद पता नहीं कैसे अपनी जिंदगी काटेगा?
मैं नि:शब्द था। सोचने लगा क्या जवाब दूं। उसी दिन मैंने ठाना कि आज से सोसाइटी के लिए जीना है। फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के लिए कुछ करना है।’
शाम का वक्त, छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का जलविहार इलाका। तेली बांदा तालाब से सटे ‘नुक्कड़’ कैफे में इसके फाउंडर प्रियंक पटेल अपनी कहानी सुना रहे हैं। बातचीत के बीच प्रियंक एक स्टाफ को बुलाते हैं, उन्हें इशारे में कॉफी लाने के लिए कहते हैं।
प्रियंक बताते हैं, ‘जिस स्टाफ को मैंने अभी कॉफी लाने के लिए कहा, वो न तो सुन सकता है और न बोल सकता है। हमारे साथ अभी 60 से ज्यादा मूक बधिर काम कर रहे हैं।’
आप ही बताइए, इन लोगों की क्या गलती है। ये पैदाइशी या एडल्ट एज में सुनने, बोलने की क्षमता खो चुके हैं। कुछ लोग तो न देख सकते हैं, न बोल सकते हैं और न ही सुन सकते हैं।
कभी क्या किसी ने इस बात को सोचने की जहमत उठाई है कि ये लोग अपना जीवन कैसे काटते होंगे। क्या इनके नसीब में सिर्फ भीख मांगना, दूसरों पर निर्भर रहना ही लिखा हुआ है। जब मुझे लगा कि 21वीं सदी में भी हमारी सोसाइटी इन लोगों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करती है। तब हमने इसी थीम के साथ ‘नुक्कड़’ कैफे की शुरुआत की। यहां 70% मूक बधिर और ट्रांसजेंडर काम करते हैं।’
प्रियंक ने भिलाई से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। वो कहते हैं, ‘मैं मूल रूप से मध्य प्रदेश से हूं। पढ़ाई के सिलसिले में 12वीं के बाद दुर्ग आ गए थे। यहां मेरे बड़े भाई पहले से रहते थे। इंजीनियरिंग करने के बाद एक कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी लग गई।
तकरीबन 3 साल तक काम किया। 2010 में जब फेलोशिप जॉइन की, तो कई राज्यों में जाना हुआ। जॉब के दौरान यही लगता था कि जिंदगी इसी का नाम है, लेकिन जब सामाजिक मुद्दों से रूबरू हुआ, तब लगा कि असली जिंदगी तो ये है।
मुझे तो कैफे शुरू करने के बारे में कुछ भी पता नहीं था। अब आप ही बताओ एक इंजीनियरिंग के स्टूडेंट को इसके बारे में क्या ही पता होगा। जब 2013 में मैंने कैफे खोलने का प्लान बनाया वो भी फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के साथ।
प्लान तो बन गया लेकिन उस समय मेरे टच में फिजिकली चैलेंज्ड लोग नहीं थे। मुझे याद है कि मैंने रायपुर में एक छोटा-सा कैफे ओपेन किया था।
तभी दो मूक बधिर लोग मेरे पास पैसे मांगने के लिए आएं। मैंने उनसे इशारों में पूछा कि भीख मांगने के बदले कोई काम क्यों नहीं करते हो। उस वक्त तो मुझे कोई साइन लैंग्वेज भी नहीं आती थी।
उन्होंने एक पर्ची पर लिखकर बताया कि उन्हें कोई काम दे, तब तो वो करें। मैंने सोचा कि जो मैं चाह रहा था, वो खुद मिल गया। मैंने उन्हें अपने साथ काम पर रखा। उन्हें ट्रेनिंग दी। कुछ दिनों के बाद फिजिकली चैलेंज्ड बच्चों के लिए काम करने वाले NGO के लोगों से कॉन्टैक्ट करना शुरू किया।’
NGO वालों का क्या रिएक्शन था?
इस पर प्रियंक बताते हैं, ‘ ‘शुरुआत में NGO वाले भी शॉक्ड थे कि फिजिकली चैलेंज्ड लोग कैफे कैसे चलाएंगे? एक NGO ने तो यहां तक कहा था कि ठीक है, आज एक आदमी को ले जाइए। यदि वो आपके कैफे में कंफर्ट फील करेंगे, तो फिर हम और लोगों को आपके यहां भेजेंगे।
धीरे-धीरे मैंने इन लोगों को ट्रेनिंग देनी शुरू की। एक चीफ शेफ को हायर किया, जो आज भी यहां काम कर रहे हैं। उनकी मदद से खुद भी डिशेज के बारे में सीखा, फिजिकली चैलेंज्ड लोगों को भी सिखाया।’ इतनी देर में इलियाना कॉफी लेकर आती हैं।
प्रियंक बताते हैं, ‘ये ट्रांसवुमन हैं। करीब दो साल पहले दूसरे जगह काम कर रही थीं। जब ‘नुक्कड़’ कैफे के बारे में पता चला, तो ये अपनी एक दोस्त के रेफरेंस से यहां आईं। तब से अब ये यहीं पर काम कर रही हैं। अभी हमारे आउटलेट्स में इलियाना ही एक मात्र ट्रांसवुमन हैं।’
तो कैफे से घरवाले खुश थे?
सवाल को सुनते ही प्रियंक की हंसी छूट जाती हैं। वो कहते हैं, ‘जब मैंने कैफे और इसके थीम को लेकर मम्मी-पापा को बताया, तो सभी अवाक थे। उनका कहना था कि इंजीनियरिंग करके कौन कैफे चलाता है। उसमें भी फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के साथ, ट्रांसजेंडर के साथ काम, कौन ही आएगा कैफे में…।
इतनी अच्छी पैकेज है। जॉब छोड़कर कैफे चलाओगे…? तुम पागल हो गए हो। लेकिन जब मैंने ठान लिया कि मुझे इसी थीम के साथ कैफे खोलना है, तो उन्हें लगा कि ठीक है। एक दो महीने कैफे चलाएगा, फिर बंद करके जॉब करने लगेगा या UPSC की तैयारी में लग जाएगा।
दरअसल, पापा BDO थे। उनकी इच्छा थी कि मैं सिविल सर्विसेज की तैयारी करूं। लेकिन मैं कैफे को सक्सेसफुल बनाकर खुद को साबित करना चाहता था।
मेरे पास कुछ सेविंग्स के पैसे थे। कुछ दोस्तों, बुआ और दूसरे जानने वाले लोगों से उधार लेकर 7-8 लाख रुपए का इन्वेस्ट किया। 2013 में जब मैंने फाइनली कैफे खोला, तो उसके उद्घाटन में मम्मी-पापा नहीं आए।’
प्रियंक कैफे के काउंटर पर जाकर डिनर ऑर्डर करने के लिए कहते हैं। दिलचस्प है कि इस काउंटर पर छोटे कद के मनीष बैठे हुए हैं। वो बिलिंग कर रहे हैं।
मनीष की हाइट महज 2.5 फीट के आसपास है
मनीष कहते हैं, ‘यहां अब मैं काउंटर, कस्टमर के ऑर्डर… इन सारी चीजों को संभालता हूं। 5 साल पहले जॉब की तलाश में रायपुर आया था। रहने वाला बिलासपुर का हूं। मैं उतना पढ़ा-लिखा भी नहीं हूं।
आप ही बताइए, मेरे कद के आदमी को कौन काम देगा? क्या हम पैदा ही हुए हैं सर्कस में काम करने के लिए। मुझ जैसे जिन बौने लोगों को टीवी पर देखकर दर्शक हंसते हैं, ठहाके लगाते हैं, सही मायने में इसका स्याह पक्ष क्या होता है? कितना दर्द हमें होता है, मुझसे पूछिए।
पैदा होने से लेकर अब तक तिरस्कार भरी नजरों का सामना करता रहा हूं। स्कूल जाता था, तो दोस्त बौना कहकर चिढ़ाते थे। मुझे किसी ने सामान्य होने का एहसास नहीं कराया। अब यहां पर हूं, तो हर दिन खुशी-खुशी कट जाता है। मेहनत से दो रुपए कमाना किसे अच्छा नहीं लगता।’
प्रियंक के कैफे का इंटीरियर डिजाइन देखते ही बन रहा है। दीवारों पर गांव के रंग पोते हुए हैं। पूरा एरिया ग्रीन और किसी पुराने जमाने के घर जैसा डिजाइन किया हुआ है। इसी दीवार पर तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के साथ प्रियंक की फोटो लगी हुई है।
वो इसके बारे में बता रहे हैं, ‘2020 में मुझे राष्ट्रपति से अवॉर्ड मिला था। मेरा कैफे देश का पहला ऐसा कैफे है, जहां इस तरह के लोग काम करते हैं।’
प्रियंक इन लोगों के उत्साह को देखते हुए कहते हैं, ‘मैं नहीं चाहता हूं कि कोई भी कस्टमर इस वजह से यहां पर आएं कि फिजिकली चैलेंज्ड लोग काम करते हैं। मैं मानता हूं कि सर्विस हमारी ऐसी हो कि लोगों को अच्छा लगे। इसीलिए मैंने डिशेज से लेकर इंटीयरियर डिजाइन, इन सारी चीजों पर फोकस किया है। लोग घर जैसा फील करते हैं। इसमें मेरी पत्नी नेहा का बहुत बड़ा रोल है। उसी का ये पूरा प्लान है।
दूसरे आउटलेट्स पर आप चलेंगे, तो वहां तो कुर्सियां भी नहीं हैं। गद्दा बिछा हुआ है, लोग आराम से बैठकर इंजॉय करते हैं। मुझे भी खुशी होती है कि कस्टमर सीधे इन फिजिकली चैलेंज्ड लोगों से कनेक्ट हो रहे हैं। इनकी कहानी जान रहे हैं। इसलिए मैंने इन लोगों को कभी किचन तक नहीं रखा, क्योंकि वहां कौन खाना बना रहा है, बाहर खाने का स्वाद ले रहा कस्टमर नहीं जानता है।’
प्रियंक जब नेहा का जिक्र करते हैं, तो वो थोड़े सहम जाते हैं।
2018-19 की बात है। हम अपना बिजनेस बढ़ा रहे थे। भिलाई में एक आउटलेट ओपेन किया था, जहां सिर्फ ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के लोगों को हमने हायर किया था।
इसी बीच एक हादसा हो गया। नेहा का भाई ट्रैक पर गया था। तकरीबन 10 दिन बीत गए थे। उसके भाई का फोन नहीं आया था। सबने उसे ढूंढने की पूरी कोशिश की। पहाड़ों पर रहे। SDRF से लेकर सरकार तक, हर किसी ने अपनी तरफ से पूरा प्रयास किया, 56 दिनों तक चलाए गए ऑपरेशन के बावजूद भी वो नहीं मिला। आज भी उसका कोई अतापता नहीं है। कुछ महीने तक हम लोग बहुत परेशान भी हुए, अब क्या ही कर सकते हैं।’ कहते-कहते प्रियंक ठहर जाते हैं।
आपके बच्चे हैं?
प्रियंक के चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट आ जाती है। वो कहते हैं, ‘ये जितने भी लोग आप देख रहे हैं, सब हमारे ही तो बच्चे हैं। हम दोनों (प्रियांक और नेहा) ने ये तय किया है कि कोई फैमिली प्लान नहीं करेंगे।
मुझे लगता है कि देश में लाखों बच्चे हैं, जिनके मां-बाप नहीं हैं। तो इन्हें हम क्यों न अपना बच्चा बनाएं। मां-बाप का प्यार दें कि दूसरा बच्चा पैदा करें। यदि अपना बच्चा होगा, तो जाहिर सी बात है कि पूरा फोकस इन्हीं पर होगा।
मैं सोसाइटी को कुछ देना चाहता हूं। इसीलिए कई तरह के प्रोग्राम अपने कैफे में ऑर्गनाइज करवाता रहता हूं। स्कूलों में बच्चों के साथ एक्टिविटी करवाता रहता हूं।’
प्रियंक आखिर में बिजनेस की तरफ लौटते हैं। बताते हैं, ‘अभी रायपुर में मेरे 4 आउटलेट्स हैं। सभी जगह फिजिकली चैलेंज्ड लोग काम कर रहे हैं। करीब 80 लोगों की टीम काम कर रही है। सालाना टर्नओवर एक करोड़ से अधिक का है।’