पूर्णिमा की प्रेरक यात्रा
यह कहानी है पूर्णिमा की, जिनका जन्म 22 सितंबर 1983 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के ग्राम पिटाऊट में हुआ। उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा और सामाजिक सेवा के माध्यम से समाज में महत्वपूर्ण बदलाव लाए हैं। उनके पास एम.ए., बी.एड., और ऑफिस मैनेजमेंट में पॉलिटेक्निक जैसी उच्च शिक्षा है।
शुरुआत की चुनौतियाँ और सफलता की पहली किरण
2010 में, पूर्णिमा ने कंप्यूटर डेटा फीडिंग का काम शुरू करने के लिए एक छोटा सा ऑफिस खोला। अगले 4-5 सालों तक उन्होंने इस क्षेत्र में खूब मेहनत की। शुरुआत में, एक कंपनी में डेटा ऑपरेटर के रूप में काम किया, जहां उन्हें केवल 1800 रुपये मासिक वेतन मिलता था। दो-तीन वर्षों तक उन्होंने यह नौकरी की, और तभी उनके मन में एक विचार आया कि वे अपना खुद का काम भी शुरू कर सकती हैं।
उनके रिश्तेदार के माध्यम से, उन्हें पंचायत राज विभाग में डेटा एंट्री का काम मिला। यह बही-खाते का रिकॉर्ड रखने का काम था, जिसमें सरकार द्वारा गांव में भेजे गए पैसे का हिसाब-किताब रखना होता था। इस कार्य को सीखने के बाद, उन्होंने खुद काम लेने का मन बनाया। उत्तर प्रदेश में इस कार्य को उस समय कोई और नहीं कर रहा था। उन्होंने कानपुर नगर के जिला पंचायत राज अधिकारी से संपर्क किया और उन्हें काम मिल गया। शुरू में उन्होंने खुद यह काम किया, लेकिन बाद में उन्होंने अन्य बच्चों को भी नौकरी देने की सोची, जिनके पास लैपटॉप थे और वे पार्ट-टाइम काम करना चाहते थे। उन्होंने करीब 40 लोगों को नौकरी दी और कानपुर नगर, कानपुर देहात, फर्रुखाबाद, उन्नाव, इटावा, सोनभद्र, मिर्जापुर जैसे जिलों का कार्य किया।
सरकारी नौकरी का सफर
धीरे-धीरे, इस कार्य को लोग सीख गए और काम थोड़ा कम हो गया। उसी समय, पंचायत राज विभाग में जिला समन्वयक की नौकरी निकली। लोग पूर्णिमा को जानते थे और उनके काम से परिचित थे, इसलिए उन्हें यह नौकरी मिल गई। सरकारी नौकरी की शुरुआत में, बॉस से कर्मचारी बनने में थोड़ी कठिनाई हुई। सरकारी विभाग में अक्सर लोगों को यही लगता है कि कोई नया व्यक्ति ज्यादा न सीख ले, इसलिए कई महीने सीखने-सिखाने में निकल गए।
2014 में, स्वच्छ भारत मिशन कार्यक्रम आया और पूर्णिमा की असली प्रतिभा उभरकर सामने आई। उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने का बहुत अवसर मिला, जिसमें सबसे बड़ा कार्य उन्होंने पब्लिक डीलिंग में किया। उनके उत्कृष्ट कार्य को देखते हुए, उन्हें ट्रेनर के रूप में कई जिलों में भेजा गया और बड़ी कार्यक्रमों में टीम लीडर की भूमिका दी गई। उनके कार्य और सफलता से कई लोग ईर्ष्या करने लगे और उन्हें विभाग से हटाने की कोशिश की। दो बार उन्हें हटाया गया, लेकिन हर बार उनके उच्चाधिकारियों ने उनकी नियुक्ति पुनः करवाई। आखिरकार, उन्होंने खुद ही नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया।
स्वयं का काम और सामाजिक सेवा
नौकरी छोड़ने के बाद, पूर्णिमा ने स्किल इंडिया कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को शिक्षित करने का काम शुरू किया। उन्हें दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना का कार्य मिला, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को कई तरह के कोर्स कराए जाते हैं। यह एक आवासीय कार्यक्रम है और पूर्णतः नि:शुल्क है। इसमें रहना, खाना, कॉपी-किताब, यूनिफार्म सब नि:शुल्क होता है। उन्होंने विशेष जोर देकर लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने 70 छात्राओं को पढ़ाया है, जिनमें से 52 नौकरी कर रही हैं और वर्तमान में 140 छात्राएँ उनके मार्गदर्शन में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। भविष्य में, वे इन बच्चियों को अलग-अलग प्रदेशों में नौकरी दिलाने का प्रयास कर रही हैं।
सामाजिक और धार्मिक कार्य
पूर्णिमा केवल शिक्षा तक सीमित नहीं रहीं। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक धर्म प्रबंधन पर भी कार्य किया, जिसमें महिलाओं को सैनिटरी पैड के उपयोग के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा, उनकी फाउंडेशन “अच्युत्म आत्मनिर्भर फाउंडेशन” ने पिछले 4 वर्षों से 5 रुपये में भोजन वितरण का कार्य भी किया है। उनकी प्रेरणा बाबा नीम करोली महाराज और उनके सेवक श्री विनोद जोशी बाबू जी से मिली है। उन्होंने बाबा की रसोई के नाम से भोजन वितरण का कार्य प्रारंभ किया, जो कई बार अनुदान के माध्यम से चलता है, लेकिन यह कार्य निरंतर 4 वर्षों से चल रहा है।
भविष्य की योजनाएँ
पूर्णिमा ने वेस्ट मैनेजमेंट और हैंडीक्राफ्ट के क्षेत्र में भी काम किया है और भविष्य में महिलाओं के साथ बड़े व्यवसाय के कार्य करने की योजना बना रही हैं। उनकी यह यात्रा वास्तव में प्रेरणादायक है और समाज के लिए एक मिसाल है। उनके प्रयासों ने न केवल उन्हें बल्कि कई अन्य लोगों को भी आत्मनिर्भर और सशक्त बनाया है।